जज़्बा-ए-इश्क़ अजब सैर दिखाता है हमें अपनी जानिब कोई खींचे लिए जाता है हमें बज़्म में तकते हैं मुँह उस का खड़े और वो शोख़ न उठाता है किसी को न बिठाता है हमें क्या सितम है कि तरीक़ अपना रह-ए-इश्क़ में आह कोई जिस को नहीं भाता वो ही भाता है हमें इस तरक़्क़ी में तनज़्ज़ुल में है कि जूँ क़ामत-ए-तिफ़्ल आसमाँ उम्र घटाने को बढ़ाता है हमें बंद कर बैठे हैं अब आँख जो हम तो अल्लाह नज़र आता जो नहीं सो नज़र आता है हमें ठंडे होने का भी ता समझें मज़ा इतने लिए चर्ख़ मानिंद-ए-चराग़ आह जलाता है हमें ऐ ख़ुशा ये कि वो हँसने के लिए रोता है अपनी ख़ुरसंदी-ए-ख़ातिर को कुढ़ाता है हमें मिल के हम उस से जो टुक सोवें तो दुख देने को बख़्त-ए-बद ख़्वाब जुदाई का दिखाता है हमें हम हैं वो मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार कि अपने पर से वारना जिस को कि होवे वो छुड़ाता है हमें ला के उस शोख़-ए-सितमगर के दो-रंगी के पयाम न हँसाता है कोई अब न रुलाता है हमें सन से जा बैठते हैं उस के तसव्वुर में हम आह बज़्म-ए-ख़ूबाँ में कोई पास बुलाता है हमें महव-ए-नज़्ज़ारा हों क्या हम कि ब-क़ौल-ए-'जुरअत' अपनी जानिब कोई खींचे लिए जाता है हमें