ज़ख़्म जब गुफ़्तुगू नहीं करता चारागर भी रफ़ू नहीं करता शहर-ए-उल्फ़त का वो मुनाफ़िक़ है बात जो रू-ब-रू नहीं करता बात-बे-बात मुस्कुराता हूँ ग़म को मैं सुर्ख़-रू नहीं करता हूक अंदर से उठ रही है मियाँ मैं दिखाने को हू नहीं करता ज़ब्त की आख़िरी निशानी है मैं अगर हाओ-हू नहीं करता ठीक है देख-भाल करता है ज़ख़्म लेकिन रफ़ू नहीं करता अपने ताईं वो ख़ूब लिखता है लफ़्ज़ की आबरू नहीं करता ऐ मिरे पारसा बता मुझ को मैं जो करता हूँ तू नहीं करता जो उदासी का पेड़ है 'शाहिद' सब्ज़-रुत में नुमू नहीं करता