शहर आबाद हो चुका भी है और फिर से उजड़ रहा भी है रोज़-ओ-शब का सफ़र भी है जारी और मुसाफ़िर थका हुआ भी है रात है चाँद है सितारे हैं और ख़्वाबों का सिलसिला भी है इक तो हूरान-ए-ख़ुल्द की ख़्वाहिश और फिर बख़्त-ए-ना-रसा भी है ख़ुद-फ़रेबी की आख़िरी हद तक हम ने बदला तो आईना भी है हम ने बाज़ी तो यूँ नहीं हारी कोई अपना इधर गया भी है एक तो दूर है बहुत मंज़िल उस पे पुर-पेच रास्ता भी है ज़िंदगी जितनी ख़ूबसूरत है उस से बढ़ कर ये बद-नुमा भी है शहर में शोर है क़यामत का और 'फ़रहत' ग़ज़ल-सरा भी है