ज़ख़्म खाती हूँ मुस्कुराती हूँ यूँ ग़म-ए-ज़िंदगी निभाती हूँ रोज़ करता है वो जफ़ा मुझ पर और मैं रोज़ भूल जाती हूँ हूँ बिखरती मैं रोज़ ही लेकिन रोज़ ख़ुद को समेट लाती हूँ उस की मर्ज़ी नहीं गिला उस से हौसला है जो मैं निभाती हूँ अब तो आदत सी हो गई 'रूबी' आप अपनी हँसी उड़ाती हूँ