ज़ख़्म कुछ ऐसे दे के गया दाराई का कर्ब भोग रहा हूँ मुद्दत से तन्हाई का कर्ब ये तो सुर्ख़ सुलगता सूरज ही जाने है कितना भयानक होता है तन्हाई का कर्ब तेज़ हवा में ताली बजाने वाले पत्तो बाँझ न कर दे पेड़ों को शहनाई का कर्ब ज़ेहन का मेरे रोज़ बदल देता है मौसम शाम ढले सौंधा सौंधा अँगनाई का कर्ब रह जा कर बे-चेहरा लोगों की बस्ती में मस्ख़-शुदा आँखों में रख बीनाई का कर्ब तोड़ रहा है क्यूँ मुतहय्यर आईने 'असलम' ग़ौर-तलब है तेरी ख़ुद-आराई का कर्ब