जब दिल ही नहीं बाक़ी वो आतिश पारा सा क्यूँ रक़्स में रहता है पलकों पे शरारा सा वो मौज हमें ले कर गिर्दाब में जा निकली जिस मौज में रौशन था सरसब्ज़ किनारा सा तारा सा बिखरता है आकाश से या कोई ठहरे हुए आँसू को करता है इशारा सा तिनकों की तरह हर शब तन-मन को बहा ले जाए इक बरसों से बिछड़ी हुई आवाज़ का धारा सा जैसे कोई कम कम हो शायद वही 'असलम' हो इस राह से गुज़रा है इक हिज्र का मारा सा