ज़ख़्म महके हैं गुल-रुख़ों की तरह हम भी ज़िंदा हैं हसरतों की तरह तुम को ख़ुशबू बना के छोड़ेंगे हम में बू-बास है गुलों की तरह कितने चेहरे लगाए फिरते हैं आज इंसान रावनों की तरह रोज़ आब-ए-हयात पीता हूँ रोज़ मरता हूँ मैं गुलों की तरह जिस को पाला वही तो ज़ेहन हम को डसता रहता है नागिनों की तरह तपता रहता हूँ रेत के मानिंद कोई बरसे तो बादलों की तरह अब कहाँ जाएँ किस तरह जाएँ दर्द फैला है रास्तों की तरह इस गिरानी के दौर में 'अंजुम' अपने सीने हैं मक़बरों की तरह