ज़ख़्म सहे मज़दूरी की By Ghazal << यूँ देख न बे-कार का कठ-पु... दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा ह... >> ज़ख़्म सहे मज़दूरी की साँस कहानी पूरी की जज़्बे की हर कोंपल को आग लगी मजबूरी की चुप आया चुप लौट गया गोया बात ज़रूरी की उस का नाम लबों पर हो साअ'त हो मंज़ूरी की कितने सूरज बीत गए रुत न गई बे-नूरी की पास ही कौन था 'असलम' जो करें शिकायत दूरी की Share on: