ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से हम ख़ूब हैं वाक़िफ़ तिरे अंदाज़-ए-कमर से ये तार निकलता है कोई दिल के गुहर से फिर आए अगर जीते वो का'बे के सफ़र से तो जानो फिरे शैख़-जी अल्लाह के घर से सरमाया-ए-उम्मीद है क्या पास हमारे इक आह है सीने में सो न-उम्मीद असर से वो ख़ुल्क़ से पेश आते हैं जो फ़ैज़-रसाँ हैं हैं शाख़-ए-समर-दार में गुल पहले समर से हाज़िर हैं मिरे जज़्बा-ए-वहशत के जिलौ में बाँधे हुए कोहसार भी दामन को कमर से लबरेज़ मय-ए-साफ़ से हों जाम-ए-बिलोरीं ज़मज़म से है मतलब न सफ़ा से न हजर से अश्कों में बहे जाते हैं हम सू-ए-दर-ए-यार मक़्सूद रह-ए-का'बा है दरिया के सफ़र से फ़रियाद-ए-सितम-कश है वो शमशीर-ए-कशीदा जिस का न रुके वार फ़लक की भी सिपर से खुलता नहीं दिल बंद ही रहता है हमेशा क्या जाने कि आ जाए है तू इस में किधर से उफ़ गर्मी-ए-वहशत कि मिरी ठोकरों ही में पत्थर हैं पहाड़ों के उड़े जाते शरर से कुछ रहमत-ए-बारी से नहीं दूर कि साक़ी रोएँ जो ज़रा मस्त तो मय अब्र से बरसे मैं कुश्ता हूँ किस चश्म-ए-सियह-मस्त का या रब टपके है जो मस्ती मिरी तुर्बत के शजर से नालों के असर से मिरे फोड़ा सा है पकता क्यूँ रीम सदा निकले न आहन के जिगर से ऐ 'ज़ौक़' किसी हमदम-ए-देरीना का मिलना बेहतर है मुलाक़ात-ए-मसीहा-ओ-ख़िज़र से