जाल रगों का गूँज लहू की साँस के तेवर भूल गए कितनी फ़नाएँ कितनी बक़ाएँ अपने अंदर भूल गए जनम जनम तक क़ैद रहा इक बे-मअ'नी अंगड़ाई में मैं हूँ वो मेहराब जिसे मेरे ही पत्थर भूल गए जाने क्या क्या गीत सुनाए गर्दिश की सरगोशी ने बे-चेहरा सय्यारे मुझ में अपना मेहवर भूल गए बीती हुई सदियों का तमाशा आने वाले कल का भँवर आते जाते लम्हे मुझ में अपना पैकर भूल गए अब भी चारों सम्त हमारे दुनियाएँ हरकत में हैं हम भी बे-ध्यानी में क्या क्या जिस्म के बाहर भूल गए दूर किनारों की रेतों पर खोज रहे हैं आज 'रियाज़' किस की सूनी आँखों में हम अपने समुंदर भूल गए