तन्हाइयों के दश्त में अक्सर मिला मुझे वो शख़्स जिस ने कर दिया मुझ से जुदा मुझे वारफ़्तगी मिरी है कि है इंतिहा-ए-शौक़ उस की गली को ले गया हर रास्ता मुझे जैसे हो कोई चेहरा नया उस के रू-ब-रू यूँ देखता रहा मिरा हर आश्ना मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझ के जो मुझ को मिटा गया उस जैसा उस के ब'अद न कोई लगा मुझे पहले ही मुझ पे कम नहीं तेरी इनायतें दम लेने दे ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ज़रा मुझे मुश्किल मुझे डूबना किनारे पे भी न था नाहक़ भँवर में लाया मिरा नाख़ुदा मुझे ये ज़िंदगी कि मौत भी है जिस पे नौहा-ख़्वाँ किस जुर्म की न जाने मिली है सज़ा मुझे