इसी बाइ'स तो दुनिया की मुसीबत ग़म नहीं होती ये दुनिया ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती चराग़ों में लहू इंसानियत का जगमगाता है मगर इंसानियत की चश्म-ए-कम पुर-नम नहीं होती ख़ुशी महसूस करता हूँ तो दुनिया साथ देती है मुसीबत में मगर आमादा-ए-मातम नहीं होती ख़ुशी की शम्अ' तो ऐ दोस्त ज़द में आ भी जाती है मगर दाग़-ए-जिगर की रौशनी मद्धम नहीं होती सलीक़ा चाहिए आवाज़ को पहचान लेने का नवा-ए-शाइ'री हर दम नवा-ए-ग़म नहीं होती 'जलील' उन से बिछड़ कर इक ज़माना हो गया लेकिन अभी तक मेरे अश्कों की रवानी कम नहीं होती