जलता हुआ जो छोड़ गया ताक़ पर मुझे देखा न इस ने लूट के पिछले पहर मुझे वहशत से था नवाज़ना इतना अगर मुझे सहरा दिया है क्यूँ फ़क़त आफ़ाक़ भर मुझे मैं गूँजता था हर्फ़ में ढलने से पेशतर घेरा है अब सुकूत ने औराक़ पर मुझे शाम-ओ-सहर की गर्दिशें भी देखनी तो हैं अब चाक से उतार मिरे कूज़ा-गर मुझे दरया-ए-मौज-खेज़ भी जिस पर सवार था होना पड़ा सवार उसी नाव पर मुझे मुझ में तड़प रहा है कोई चश्मा-ए-सुकूत ज़र्ब-ए-असा से देख कभी तोड़ कर मुझे पहुँचा किधर यहाँ न ज़मीं है न आसमाँ अब कौन सी मसाफ़तें करनी हैं सर मुझे थे गंज-ए-बे-क़यास तह-ए-क़ुल्ज़ुम-ए-वजूद डूबा जो मैं तो मिल गए लाल-ओ-गुहर मुझे जो ला सके न ताब ही मेरे जुनून की इस दश्त-ए-कम-सवाद में दाख़िल न कर मुझे शायद हटा है ग़ैब का पर्दा 'रफ़ीक़-राज़' आता है नख़्ल-ए-आब पे शोअ'ला नज़र मुझे