सुन रहा हूँ बे-सदा नग़्मा जो मैं बा-चश्म-ए-तर चुपके चुपके ज़िंदगी हँसती है मेरे हाल पर अपनी सारी उम्र खो कर मैं ने पाया है तुम्हें आओ मेरे ग़म के सन्नाटो मिरे नज़दीक-तर एक दिल था सो हुआ है पाएमाल-ए-आरज़ू अब न कोई रहनुमा है और न कोई हम-सफ़र हर क़दम पर पूछता हूँ पाँव के छालों से मैं ये मिरी मंज़िल है या बाक़ी है मेरी रहगुज़र कौन है ये जो मिरे दिल में है अब तक महव-ए-ख़्वाब ढूँडते हैं एक मुद्दत से जिसे शाम-ओ-सहर बंद हैं वारफ़्तगान-ए-हुस्न पर सब रास्ते तेरे दर से मैं अगर उठ्ठूँ तो जाऊँगा किधर जल रहा है आतिश-ए-फ़ुर्क़त में लेकिन ज़िंदा है क्यूँ लिए बैठा है ये इल्ज़ाम 'अख़्तर' अपने सर