जलती दोपहरों में इक साया सा ज़ेर-ए-ग़ौर है बुझती आँखों में कोई चेहरा सा ज़ेर-ए-ग़ौर है अब के मैं ज़िंदा रहूँ या फिर से मर जाऊँ 'सुहैल' फ़ैसला सब हो चुका थोड़ा सा ज़ेर-ए-ग़ौर है इतनी वीरानी में रौशन हो तिरी तस्वीर कब इस सुलगते जिस्म में शो'ला सा ज़ेर-ए-ग़ौर है जिस्म के आईने में शो'ला सा रखा है सवाल पाँव की ज़ंजीर को हल्क़ा सा ज़ेर-ए-ग़ौर है नींद उड़ती ही रही ख़्वाबों के जंगल में सदा आसमाँ पर चाँद का ख़ाका सा ज़ेर-ए-ग़ौर है गर गई तारीख़ मेरे हाथ से अहमद 'सुहैल' इक नए इंसान का ख़ाका सा ज़ेर-ए-ग़ौर है