शायद वो पढ़ सकेंगे न लिखा हुआ तमाम ख़त मेरा आँसूओं में है भीगा हुआ तमाम रूदाद-ए-दर्द-ए-इश्क़ सुनाने चला था मैं तुम से मिली निगाह तो क़िस्सा हुआ तमाम दिल मेरा हसरतों की है दुनिया लिए हुए आँखों में सैल-ए-अश्क है ठहरा हुआ तमाम ऊँची इमारतें हैं मगर पस्ता-क़द हैं लोग ये तेरा शहर मेरा है देखा हुआ तमाम तेवर कुछ अब के और हैं फ़स्ल-ए-बहार के ग़ुंचा कोई खिला भी तो बिखरा हुआ तमाम अब ये चमन भी दोस्तो कुछ ग़ैर सा लगे हर चंद अपने ख़ूँ से है सींचा हुआ तमाम इन मह-रुख़ों के इश्क़ में 'अफ़सर' मिरा कलाम आता है बाम-ए-अर्श से निखरा हुआ तमाम