जल्वा पाबंद-ए-तूर है अब तक दिल वही कोह-ए-नूर है अब तक ज़ीस्त से कम नहीं ख़ुशी लेकिन ग़म मताअ'-ए-शुऊ'र है अब तक फ़ासला बस निशात-ओ-ग़म का है वो क़रीं है न दूर है अब तक मय-कशी का अगर सलीक़ा हो ग़म में कैफ़-ओ-सुरूर है अब तक दिल की चौखट पे है ग़मों की भीड़ दिल में कोई ज़रूर है अब तक दिन का सूरज तो ढल गया कब का ज़िक्र-ए-रुख़्सार-ए-हूर है अब तक हर पस-ए-रुख़ है इक रुख़-ए-रौशन ज़िंदगी का ज़ुहूर है अब तक ये तिरा मुंकसिर-मिज़ाज 'कलीम' बंदा-ए-पुर-ग़यूर है अब तक