जल्वा-गर सोचों में हैं कुछ आगही के आफ़्ताब रौशनी से लिख रहा हूँ ज़िंदगानी का निसाब पत्थरों से कब तलक बाँधेगी उम्मीद-ए-वफ़ा ज़िंदगी देखेगी कब तक जागती आँखों से ख़्वाब क्या ख़बर वो कौन हैं रोज़-ए-जज़ा के मुंतज़िर चश्म-ए-बीना के लिए हर रोज़ है रोज़-ए-हिसाब ख़ाक ज़िंदा गर करे हुस्न-ए-अज़ल की आरज़ू दरमियाँ रहता नहीं फिर कोई भी तार-ए-हिजाब जानते हैं वो हुसूल-ए-माया की हर इक सबील हिफ़्ज़ हैं सज्जादगाँ को ख़ानक़ाही के निसाब इंक़लाब-ए-सुब्ह की कुछ कम नहीं ये भी दलील पत्थरों को दे रहे हैं आइने खुल कर जवाब