जलवों की तिरे लाए कोई ताब कहाँ तक हर शय में नुमायाँ हैं नज़र जाए जहाँ तक मिलने को तो मिल जाएँ अभी दोनों जहाँ तक कम-बख़्त दुआ आ भी चुके दिल से ज़बाँ तक हम ख़ाक-नशीनों की रसाई है वहाँ तक पहुँचे न फ़रिश्तों का जहाँ वहम-ओ-गुमाँ तक पहुँचा दिया साक़ी ने दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक और सैर-ए-ख़राबात ने क्या जाने कहाँ तक का'बा में कलीसा में उसे ढूँड के आख़िर हद ये है कि आ पहुँचे हैं अब कू-ए-बुताँ तक उल्फ़त भी है क्या चीज़ शिकायत की कोई बात उट्ठी भी अगर दिल से तो आई न ज़बाँ तक होने को सहर आई है ख़ामोश हो ऐ शम्अ तू सोज़िश-ए-परवाना पे रोएगी कहाँ तक ज़ाहिद के लिए क़स्र भी हूरें भी जिनाँ भी लेकिन नहीं रिंदों के लिए एक दुकाँ तक वा'दा तो वफ़ा हो कि न हो ये है शिकायत लब से कभी निकली नहीं तस्कीन को हाँ तक क्या क्या न हँसी अबरू-ओ-मिज़्गाँ ने उड़ाई पहुँची जो कभी बात ज़रा तेग़-ओ-सिनाँ तक नूर-ए-सहर-ओ-रंग-ए-सहर पर नहीं मौक़ूफ़ दुश्मन है शब-ए-वस्ल में आवाज़-ए-अज़ाँ तक जादू है अदाओं में निगाहों में करिश्मे ऐसों से बचाए कोई ईमान कहाँ तक साक़ी का करम देख कि इक आन में 'शाग़िल' पहुँचा ही दिया बारगह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक