जम गई बर्फ़ सी ये पिघलती नहीं आरज़ू सच के क़ालिब में ढलती नहीं ख़्वाब अपनी जगह सुब्ह अपनी जगह शब ये लेकिन किसी सम्त चलती नहीं आदमी की हवस ने उजाड़ा जिसे ज़िंदगी उस चमन में टहलती नहीं लड़खड़ाते क़दम ख़ुद सँभालें यहाँ ज़ीस्त हमवार राहों पे चलती नहीं मेरी आँखों से टपका न होता लहू तो कहानी तिरी भी निकलती नहीं अब डराता नहीं कोई भी हादिसा सीने में धड़कनें भी मचलती नहीं दोस्ती भी घुली हो अगर चाय में वक़्त रुक जाता है शाम ढलती नहीं