जमाल-ओ-हुस्न की वो अंजुमन में क्या बैठे मता-ए-होश-ओ-ख़िरद ही को जो गँवा बैठे जिन्हें अदब से इलाक़ा न फ़िक्र-ओ-फ़न से लगाओ हमारी बज़्म में ऐसे भी लोग आ बैठे कभी बुज़ुर्गों से मीरास में जो पाई थी वो सारी क़द्रें वो तहज़ीब हम भुला बैठे मैं सोचता हूँ वो इंसान हैं कि हैवाँ हैं हैं कौन जो न कभी मिल के एक जा बैठे उन्हें से नाम-ए-तमद्दुन को जोड़ रक्खा है जो अपनी दौलत-ए-तहज़ीब भी लुटा बैठे फिर ऐसे घर में हो क्या कोई क़ीमती सामान हसद की आग से जो अपना घर जला बैठे अमीर-ए-क़ाफ़िला को हो थकन का जब एहसास तो रास्ते में न क्यों थक के क़ाफ़िला बैठे उन्हें मिलेगा न 'इक़बाल' मंज़िलों का पता वो राहज़न ही को जो रहनुमा बना बैठे