ज़माना हेच है उस की निगाह में ऐ दोस्त जो आ गया तिरे ग़म की पनाह में ऐ दोस्त झलक रही है जो चश्म-ए-सियाह में ऐ दोस्त वो मौज-ए-नूर कहाँ मेहर-ओ-माह में ऐ दोस्त लहू जो सीना-ए-दहक़ाँ से बूँद बूँद गिरा चमक रहा है वही ताज-ए-शाह में ऐ दोस्त सनम-कदे में भी जिस शिर्क को अमाँ न मिली फ़रोग़ पर है वही ख़ानक़ाह में ऐ दोस्त सुकून-ए-दिल भी अजब चीज़ है कि उस के तुफ़ैल जबीं पे नूर है हाल-ए-तबाह में ऐ दोस्त न मुज्तहिद है न सूफ़ी मगर तिरा 'मंज़ूर' अज़ीज़-तर है जहाँ की निगाह में ऐ दोस्त