ज़माना संग है फ़रियाद आईना मेरी ग़लत कहूँ तो ज़बाँ छीन ले ख़ुदा मेरी तिरा क़ुसूर है इस में न है ख़ता मेरी तिरी ज़मीं पे जो बरसी नहीं घटा मेरी जहाँ से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ किया था तू ने कभी खड़ी हुई है उसी मोड़ पर वफ़ा मेरी तुम इस लिबास-ए-दरीदा पे तंज़ करते हो इसी लिबास में महफ़ूज़ है हया मेरी इस इक ख़याल से दिल बैठ बैठ जाता है डुबो न दे कहीं कश्ती को नाख़ुदा मेरी 'अनीता' उस को न आना था वो नहीं आया बुला बुला के उसे थक गई सदा मेरी