ज़माने की इनायत चाहता हूँ मैं थोड़ी सी मोहब्बत चाहता हूँ मिरी कश्ती तो डूबेगी यक़ीनन नदी की भी नदामत चाहता हूँ तिरे दरिया तुझे लौटा दिए हैं समुंदर हूँ मैं राहत चाहता हूँ मुझे तो ज़हर पीना ही पड़ेगा मगर तेरी रिफ़ाक़त चाहता हूँ मैं आसी हूँ मगर तेरी इनायत ख़ुदा मैं ता-क़यामत चाहता हूँ हर इक सच्चाई उस से कह सकूँ मैं ज़बाँ में इतनी हिम्मत चाहता हूँ मिरी रग रग में और साँसों में या-रब उतर जाए शरीअ'त चाहता हूँ