ज़माने वालों के चेहरों पे कितने डर निकले फ़लक की चाह में जब भी ज़मीं के पर निकले भटकना चाहूँ भी तो दुनिया मुख़्तसर निकले जिधर बढ़ाऊँ क़दम तेरी रहगुज़र निकले यशोधरा की तरह नींद में छली गई तो मैं चाहती हूँ मिरे ख़्वाब से ये डर निकले कभी ख़याल में सोचो वो रात का चेहरा कि जिस घड़ी वो दुआ करती है सहर निकले कि जिस पे चलते हुए ख़ुद से मिल सकूँ मैं 'सबा' कहीं से काश कोई ऐसी रहगुज़र निकले पड़ाव होती हुई मंज़िलें न थीं मंज़ूर सो हार थक के 'सबा' हम भी अपने घर निकले