ज़मानों से दर-ए-इम्कान पर रक्खे हुए हैं चराग़ों की तरह तूफ़ान पर रक्खे हुए हैं फ़ज़ाओं में महक जलने की बू फैली हुई है किसी ने फूल आतिश-दान पर रक्खे हुए हैं ज़रा सा भी गुमाँ तेरी शबाहत का था जिन पर वो सब चेहरे मिरी पहचान पर रक्खे हुए हैं ख़ुशी को ढूँढना मुमकिन नहीं इस कैफ़ियत में कुछ ऐसे सानेहे मुस्कान पर रक्खे हुए हैं कोई तेरी परस्तिश की नहीं सूरत निकलती हज़ारों कुफ़्र इक ईमान पर रक्खे हुए हैं शिकम-सेरी से पहले लम्हा-भर को सोच लेना हमारे ख़्वाब दस्तर-ख़्वान पर रक्खे हुए हैं किसी के रोज़-ओ-शब बिकने की क़ीमत चंद लुक़्मे तो क्या वो भी तिरे एहसान पर रक्खे हुए हैं