ज़मीं जैसे की आतिश-फ़िशाँ को साथ लिए यूँ जी रहा हूँ मैं दर्द-ए-निहाँ को साथ लिए हुआ शिकार सियासत का अब के मौसम भी बहार आई है लेकिन ख़िज़ाँ को साथ लिए रुको तो यूँ कि ठहर जाए गर्दिश-ए-दौराँ चलो तो ऐसे कि सारे जहाँ को साथ लिए नफ़स नफ़स हैं उजाले हज़ार कर्ब लिए हर एक रात है इक दास्ताँ को साथ लिए किसे ज़मीं के मसाइल की फ़िक्र हो 'ख़ालिद' हर इक नज़र है यहाँ आसमाँ को साथ लिए