ज़मीं का रंग वही आसमाँ का रंग वही वही सबाहत-ए-गुल है बिना-ए-संग वही जो ख़्वाब बन नहीं पाया था मेरी आँखों का ठहर गया है मिरे आइने पे ज़ंग वही बदन में आग लगाते हुए दुआ के हाथ लहू में फूल खिलाती हुई उमंग वही बदलने वाला ही ख़ुद को बदल नहीं पाया वही बहाने हैं उस के हैं उज़्र-ए-लंग वही हज़ार सुल्ह का परचम बुलंद कर देखो मगर ज़मीं पे मुसल्लत रहेगी जंग वही पुरानी वज़्अ से आया हूँ तेरे कूचे में बदन मैं ज़ोर वही रूह में तरंग वही कुछ ऐसे ढंग से तब्दील हो रहा है वो कि रह न जाए किसी मरहले पे दंग वही वही नगर वही गलियाँ वही मकीं 'साजिद' पड़ी है पाँव में ज़ंजीर-ए-नाम-ओ-नंग वही