ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ मैं तिश्नगी के नए मआनी निकालता हूँ वही बरामद करूँगा जो चीज़ काम की है ज़बाँ के बातिन से बे-ज़बानी निकालता हूँ फ़लक पे लिखता हूँ ख़ाक-ए-ख़्वाबीदा के मनाज़िर ज़मीन से रंग-ए-आसमानी निकालता हूँ कभी कबूतर की तरह लगता है अब्र मुझ को कभी हवा से कोई कहानी निकालता हूँ बहुत ज़रूरी है मेरा अपनी हदों में रहना सो बहर से ख़ुद ही बे-करानी निकालता हूँ कभी मुलाक़ात हो मयस्सर तो इस से पहले दिमाग़ से सारी ख़ुश-गुमानी निकालता हूँ जो छेड़ता हूँ नया कोई नग़्मा-ए-मोहब्बत तो साज़-ए-दिल से धुनें पुरानी निकालता हूँ कोई ठहर कर भी देखना चाहता हूँ मंज़र इसी लिए तब्अ से रवानी निकालता हूँ 'ज़फ़र' मिरे सामने ठहरता नहीं है कोई तो अपने पैकर से अपना सानी निकालता हूँ