ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है और उस के बा'द सदा आसमान टूटता है मैं अपने-आप में तक़्सीम होने लगता हूँ जो एक पल को कभी तेरा ध्यान टूटता है कोई परिंदा सा पर खोलता है उड़ने को फिर इक छनाके से ये ख़ाक-दान टूटता है जिसे भी अपनी सफ़ाई में पेश करता हूँ वही गवाह वही मेहरबान टूटता है न हम में हौसला-ए-ख़ुद-कुशी कि मर जाएँ न हम से क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-पासबान टूटता है ज़कात-ए-इश्क़ अगर बाँटने पे आ जाऊँ तो इक हुजूम-ए-तलब मुझ पे आन टूटता है जो आँधियाँ सर-ए-सहरा-ए-हिज्र उठती हैं उन आँधियों में 'रज़ा' नख़्ल-ए-जान टूटता है