विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं ये कैसी रुत है ये किन अज़ाबों के सिलसिले हैं मिरे ख़ुदा इज़्न हो कि मोहर-ए-सुकूत तोड़ें मिरे ख़ुदा अब तिरे तमाशाई थक चुके हैं न जाने कितनी गुलाब-सुब्हें ख़िराज दे कर रसन रसन घोर अमावसों में घिरे हुए हैं सदाएँ देने लगी थीं हिजरत की अप्सराएँ मगर मिरे पाँव धर्ती-माँ ने पकड़ लिए हैं यक़ीन कर लो कि अब न पीछे क़दम हटेगा ये आख़िरी हद थी और हम इस तक आ गए हैं