ज़मीं से ता-फ़लक छाई हुई है रौशनी-ए-ला ये सारा शहर है मेरी नज़र में आँख का धोका समुंदर में नदी बन कर उतर जाऊँ कहाँ तक मैं निगल जाएगा पानी एक दिन सारा बदन मेरा उगल देगी ज़मीं सब आग इक दिन अपने अंदर की रखे कब तक भला ये बोझ सीने पर पहाड़ों का नगर को लोग खुलता सा इक आईना समझते थे मगर मुझ को नज़र आया कोई चेहरा न अपना सा उसे में ढूँढता था रात की गहरी ख़मोशी में न जाने किस तरह फिर शहर में मेरा हुआ चर्चा