जाना ज़ि-बस ज़रूर था उस जल्वा-गाह में हम दैर-ओ-का'बा छोड़ गए दोनों राह में जब बोसा ले लिया तो नहीं गालियों का रंज ता'ज़ीर महव हो गई शौक़-ए-गुनाह में बिखरे हैं फूल इधर तो धरे हैं उधर को जाम है बू-ए-इत्र-ए-फ़ित्ना तिरी ख़्वाब-गाह में सूफ़ी न ख़ानक़ाह में नै रिंद दैर में मजमा' है इक जहाँ का तिरी जल्वा-गाह में 'मजरूह' कहिए मैं न हँसूँ-बोलूँ ता-ब-कै तुम तो सदा रहोगे इसी आह-आह में