नहीं कुछ अब्र ही शागिर्द मेरी अश्क-बारी का सबक़ लेती है मुझ से बर्क़ भी आ बे-क़रारी का चमन में ऐसी ही नग़्मा-सराई की कि बुलबुल को सरीर-आरा-ए-गुलशन ने दिया ख़िलअ'त हज़ारी का सहाब-ए-सुर्ख़ में इस रंग से चमकी नहीं बिजली जो है झुमका तिरे दामान-ए-रंगीं पर कनारी का टुक ऐ बुत अपने मुखड़े से उठा दे गोशा-ए-बुर्क़ा कि इन मस्जिद-नशीनों को है दावा दीन-दारी का दिखाऊँ गर तिरे कूचे में अश्क अपने की गुल-रेज़ि तिड़क़ जावे कलेजा अश्क से अब्र-ए-बहारी का करूँ क्या तेरे बिन देखे मैं इक दम रह नहीं सकता कि हूँ मजबूर मैं इस अम्र में बे-अख़्तियारी का न अब आराम है दिल को न ख़्वाब आँखों में आता है समर 'बेदार' मुझ को ये मिला उस गुल की यारी का