जाने अपने साए से क्यों आज मुझे डर लगता है जला हुआ इस शहर का हर घर अपना ही घर लगता है कुछ इतना चेहरा टूटा है घाव कुछ इतने खाए हैं फूल भी उस के हाथों का अब मुझ को पत्थर लगता है जिस से इस नन्हे बच्चे की माँ बहनों का क़त्ल हुआ मौसम-ए-गुल का हर इक मंज़र ख़ूनी मंज़र लगता है वैसे तो वो मेरा भी महबूब दुलारा है लेकिन उस की हर इक बात से मेरे दिल में ख़ंजर लगता है डूबी उभरी उभरी डूबी हर लम्हा हर पल हर रोज़ 'आशा' उस की आँखों में एक गहरा समुंदर लगता है