जाने इन आँखों ने उस दश्त में देखा क्या क्या मेरे सीने में कोई शोर उठा था क्या क्या आज तक पर्दा-ए-ता'बीर से बाहर न मिला और होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा क्या क्या शबनम-आसार भला चैन से बैठा कब हूँ ख़ुद को फैलाता रहा आँख में सहरा क्या क्या हाँ वही रंग जो तरतीब न पाया मुझ में अपनी आँखों में वो करता रहा गहरा क्या क्या ख़ूब होते ही रहे सब ख़ुश-ओ-ना-ख़ुश मुझ में मुझ से शर्मिंदा रहा ज़ख़्म-ओ-मुदावा क्या क्या हाथ पैरों में किसी शौक़ की हलचल थी बहुत देखता ही रहा मैं जानिब-ए-सहरा क्या क्या उस की बे-मेहरी का शिकवा नहीं होगा मुझ से मैं भी रखता था कभी दिल में इरादा क्या क्या दूर रहता है मगर जुम्बिश-ए-लब बोस-ओ-कनार डूबता रहता है दरिया में किनारा क्या क्या