कभी वो ख़ुश भी रहा है कभी ख़फ़ा हुआ है कि सारा मरहला तय मुझ से बरमला हुआ है नशिस्तें पुर हैं चराग़-ओ-अयाग़ रौशन हैं बस एक मेरे न होने से आज क्या हुआ है उठा के रख दो किताब-ए-फ़िराक़ को दिल में कि ये फ़साना अज़ल से मिरा सुना हुआ है कभी न ख़ाली मिला बू-ए-हम-नफ़स से दिमाग़ तमाम बाग़ में जैसे कोई छुपा हुआ है मिरी गिरफ़्त में आता नहीं है वो पल-भर मिरी नज़र से मिरा दिल अभी बचा हुआ है उसी के इज़्न-ओ-रज़ा से है सब निगह-दारी कि दाम-ओ-दाना सभी कुछ यहाँ पड़ा हुआ है मैं ख़्वाब में भी वो दामन पकड़ नहीं सकता ये हाथ और किसी हाथ में दिया हुआ है यही बहुत है अगर एक हम-सुख़न मिल जाए मैं सुन रहा हूँ मिरा दिल भी तो दुखा हुआ है मियान-ए-वा'दा कोई उज़्र अब के मत लाना कि राहें सहल हैं और ज़ख़्म भी खुला हुआ है वो बे-ख़बर है मिरी जस्त-ओ-ख़ेज़ से शायद ये कौन है जो मुक़ाबिल मिरे खड़ा हुआ है