जंग में परवर-दिगार-ए-शब का क्या क़िस्सा हुआ लश्कर-ए-शब सुब्ह की सरहद पे क्यूँ पसपा हुआ इक अजब सी प्यास मौजों में सदा देती हुई मैं समुंदर अपनी ही दहलीज़ पर बिखरा हुआ कच्ची दीवारें सदा-नोशी में कितनी ताक़ थीं पत्थरों में चीख़ कर देखा तो अंदाज़ा हुआ क्या सदाओं को सलीब-ए-ख़ामुशी दे दी गई या जुनूँ के ख़्वाब की ताबीर सन्नाटा हुआ रफ़्ता रफ़्ता मौसमों के रंग यूँ बिखरे कि बस है मिरे अंदर कोई ज़िंदा मगर टूटा हुआ सब्ज़ हाथों की लकीरें ज़र्द माथे की शिकन और क्या देता मिरी तक़दीर का लिक्खा हुआ