जंगल की तरह फैला हुआ डर समेट कर मैं जाना चाहता हूँ कहीं घर समेट कर दुनिया समेटने के तलबगार हैं बहुत रक्खा है मैं ने ख़ुद को भी अक्सर समेट कर जी चाहता है रख दूँ किसी रोज़ आग पर ग़म-हा-ए-रोज़गार का दफ़्तर समेट कर काटी है रात हम ने अँधेरों के दरमियाँ आँखों में अपनी सुब्ह का मंज़र समेट कर जीते-जी कोई डाल गया मेरे सर पे ख़ाक अपनाइयत की रेशमी चादर समेट कर 'मासूम' आसमानों की रखते थे जो ख़बर वो रौज़नों में बैठ गए पर समेट कर