जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं संग-रेज़ों की गिरह में कहकशाँ कोई नहीं क्या ख़बर है किस किनारे इस सफ़र की शाम हो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ में बादबाँ कोई नहीं आशिक़ों ने सिर्फ़ अपने दुख को समझा मो'तबर मेहर सब की आरज़ू है मेहरबाँ कोई नहीं एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं हसरतों की आबरू तहज़ीब-ए-ग़म से बच गई इस नफ़ासत से जला है दिल धुआँ कोई नहीं कट चुके हैं अपने माज़ी से सुख़न के पेशा-वर मर्सिया-गो सो चुके और क़िस्सा-ख़्वाँ कोई नहीं पूछता है आज उन का बे-तकल्लुफ़ सा लिबास इस गली में क्या जियाला नौजवाँ कोई नहीं वो रहे क़ैद-ए-ज़माँ में जो मकीन-ए-आम हो लम्हा लम्हा जीने वालों का मकाँ कोई नहीं मजलिसों की ख़ाक छानी तो खुला मुझ पर 'नईम' आज़मी सा ख़ुश-निगाह ओ ख़ुश-बयाँ कोई नहीं