जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो दोस्तो आबला-पाई का अमल कर देखो मेरी आशुफ़्ता-सरी पर न हँसो ऐ लोगो इश्क़ की आग में ख़ुद भी ज़रा जल कर देखो तुम जो चाहो तो मिरे दिल को सुकूँ मिल जाए अपना अंदाज़-ए-नज़र कुछ तो बदल कर देखो मैं तुम्हें जीने के अंदाज़ सिखा सकता हूँ एक दो गाम मेरे साथ तो चल कर देखो चाँदनी-रातों में फिरता है कोई आवारा तुम को फ़ुर्सत जो मिले घर से निकल कर देखो फ़ासले बरसों के पल-भर में सिमट आएँगे आज की शब मिरे पहलू में मचल कर देखो उस का चेहरा है किसी दश्त का सूरज 'नासिर' उस की जानिब कभी देखो तो सँभल कर देखो