जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी वो एक ग़ारत-ए-जाँ ही मता-ए-जाँ ठहरी ये ग़म नहीं कि मिरा आशियाँ रहा न रहा ख़ुशी ये है कि यहीं बर्क़ बे-अमाँ ठहरी वो तेरी चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ थी कि मौज-ए-करम वहीं वहीं पे मैं डूबा जहाँ जहाँ ठहरी कभी थे उस में मिरी ज़िंदगी के हंगामे वो इक गली जो गुज़रगाह-ए-दुश्मनाँ ठहरी वही थी ज़ीस्त का हासिल वही थी लुत्फ़-ए-हयात वो एक साअत-ए-रंगीं जो बे-कराँ ठहरी मैं उस को भूल भी जाऊँ तो किस तरह 'नासिर' जो शर्त-ए-ख़ास मिरे उन के दरमियाँ ठहरी