ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी भड़की अगर ये आँच तो मद्धम न हो सकी बदले बहार-ए-लाला-ओ-गुल ने हज़ार रंग लेकिन जमाल-ए-दोस्त का आलम न हो सकी क्या क्या ग़ुबार उठाए नज़र के फ़साद ने इंसानियत की लौ कभी मद्धम न हो सकी हम लाख बद-मज़ा हुए जाम-ए-हयात से जीने की प्यास थी कि कभी कम न हो सकी जो झुक गई जबीं तिरे नक़्श-ए-क़दम की सम्त ता-ज़ीस्त फिर वो और कहीं ख़म न हो सकी मुझ से न पूछ अपनी ही तेग़-ए-अदा से पूछ क्यूँ तेरी चश्म-ए-लुत्फ़ भी मरहम न हो सकी कितने रुमूज़-ए-शौक़ इन आँखों में रह गए जिन से निगाह-ए-दोस्त भी महरम न हो सकी मौज-ए-नसीम अपनी बहारें लुटा गई लेकिन ख़िज़ाँ की मुर्दा-दिली कम न हो सकी अल्लाह-रे इश्तियाक़ निगाह-ए-उमीद का खोए होऊँ की याद में पुर-नम न हो सकी गुल-कारी-ए-नज़र हो कि रंग-ए-जमाल-ए-दोस्त कुछ बात थी कि ज़ीस्त जहन्नम न हो सकी इन की जबीं पे ख़ैर से इक रंग आ गया मेरी वफ़ा अगरचे मुसल्लम न हो सकी अपने ही घर की ख़ैर मनाई तमाम उम्र हम से 'सुरूर' फ़िक्र-ए-दो-आलम न हो सकी