जानता हूँ कि सुकूँ क़िस्मत-ए-इंसाँ में नहीं मैं तुम्हें अपना बना लूँ मिरे इम्काँ में नहीं फ़िक्र-ए-गुलचीं ग़म-ए-सय्याद और अंदेशा-ए-बर्क़ जो सुकूँ मुझ को क़फ़स में है गुलिस्ताँ में नहीं मैं वो बर्बाद-ए-अज़ल हूँ कि नशेमन तो क्या मेरी तक़दीर के तिनके भी गुलिस्ताँ में नहीं क्यों खटकती है ज़माने को किसी की लग़्ज़िश दाग़ लाले में नहीं या मह-ए-ताबाँ में नहीं जिस की ता'मीर में एहसास-ए-शिकस्त-ए-गुल हो मेरी वहशत का इलाज ऐसे गुलिस्ताँ में नहीं सज्दे करता हूँ ब-अंदाज़-ए-जुनूँ रो रौ कर हस्ब-ए-मामूल इबादत मिरे ईमाँ में नहीं कज-रवी मस्लहत-ए-हुस्न है वर्ना 'बिस्मिल' उन में जो बात है वो बात हर इंसाँ में नहीं