ज़ोर-ए-बाज़ू भी है और सामने नख़चीर भी है देखना ये है कि तरकश में कोई तीर भी है किस तरह इश्क़-ए-मजाज़ी को हक़ीक़ी कर लूँ सामने तू है बग़ल में तिरी तस्वीर भी है कुछ नहीं है तिरे हाथों में लकीरों के सिवा बात नासेह की है लेकिन ख़त-ए-तक़्दीर भी है छेड़ती है मुझे आ आ के मिरी आज़ादी गो मैं क़ैदी हूँ मिरे पाँव में ज़ंजीर भी है मेरे होने का मिरे होश को एहसास नहीं वर्ना जो क़तरा-ए-ख़ूँ है वो शरर-गीर भी है अहल-ए-दिल के लिए आज़ार है दुनिया को मुफ़ीद अक़्ल इक होश है और होश की ता'बीर भी है कोई समझे कि न समझे तिरे अशआ'र 'कलीम' ज़ोर-ए-'ग़ालिब' भी है और दिलकशी-ए-'मीर' भी है