ज़रा बारिश बरसती है शगूफ़े जाग उठते हैं कई रंगों की ख़ुशबू से दरीचे जाग उठते हैं अभी तक पाँव की आहट से या मिट्टी शनासा है तुम्हारे साथ चलती हूँ तो रस्ते जाग उठते हैं कुछ ऐसे रौशनी दिल में उतरती है क़रीने से बहुत इम्काँ तिरे वा'दों के सदक़े जाग उठते हैं कभी ऐसे भी होता है यूँही बैठे बिठाए ही मिरी आँखों में दरियाओं के धारे जाग उठते हैं 'समीना' मैं तो लफ़्ज़ों को फ़क़त लिखती हूँ काग़ज़ पर तो फिर लफ़्ज़ों में ये कैसे शरारे जाग उठते हैं