ज़रा निगाह उठाओ कि ग़म की रात कटे नज़र नज़र से मिलाओ कि ग़म की रात कटे अब आ गए हो तो मेरे क़रीब आ बैठो दुई के नक़्श मिटाओ कि ग़म की रात कटे शब-ए-फ़िराक़ है शम-ए-उमीद ले आओ कोई चराग़ जलाओ कि ग़म की रात कटे कहाँ हैं साक़ी-ओ-मुत्रिब कहाँ है पीर-ए-हरम कहाँ हैं सब ये बुलाओ कि ग़म की रात कटे कहाँ हो मय-कदे वालो ज़रा इधर आओ हमें भी आज पिलाओ कि ग़म की रात कटे नहीं कुछ और जो मुमकिन तो यार 'शोला' की कोई ग़ज़ल ही सुनाओ कि ग़म की रात कटे