ज़र्द मौसम की हवाओं में खड़ा हूँ मैं भी और इस सोच में गुम हूँ कि हरा हूँ मैं भी सुन के हर शख़्स कुछ इस तरह गुज़र जाता है जैसे गिरते हुए पत्तों की सदा हूँ मैं भी मेरी आवाज़-ए-शिकस्ता की सताइश न करो अपनी आवाज़ की लहरों में छुपा हूँ मैं भी तुझ को तख़्लीक़ किया मैं ने कि मुझ को तू ने कौन ख़ालिक़ है यही सोच रहा हूँ मैं भी वो जो तूफ़ान-ए-ख़ुदी ले के बड़ा है 'आबिद' उस को मालूम नहीं कोह-ए-अना हूँ मैं भी