ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ वो बिलाली सौत वो सामेअ' कहाँ खोजता है अन-गिनत मस्जूद में क़ुल-हो-अल्लाहो-अहद का साएबाँ बुत-तराशी चार-सू है जल्वा-गर दे गई सब की जबीनों को निशाँ यासियत ने कर्ब के दर वा किए ख़ुश्क उम्मीदों का गुलशन है यहाँ तो रहीन-ए-ख़ाना-हा-ए-इज़्तिराब उठ रहा है तेरे चिलमन से धुआँ ज़ुल्मतें साया-फ़गन हैं हर तरफ़ बाम-ओ-दर पर रक़्स में नौ-मीदियाँ रुक ज़रा पढ़ कलमा-ए-ला-तक़नतू ख़ुद-बख़ुद रौज़न खुलेंगे दरमियाँ हौसलों के फिर से उग आएँगे पर अज़्म-ए-मोहकम को बना ले साएबाँ