ज़र्रा ज़र्रा है इसे मेहर-ए-मुनव्वर न कहो क़तरा हर हाल में क़तरा है समुंदर न कहो बुत-ए-तन्नाज़ को इख़्लास का पैकर न कहो दुश्मन-ए-मेहर-ओ-वफ़ा को फ़न-ए-आज़र न कहो कहीं फूटी है कभी उन से वफ़ा की ख़ुशबू लब-ए-माशूक़ को औराक़-ए-गुल-ए-तर न कहो रंग और नस्ल की तफ़रीक़ मिटाने के लिए मस्लहत है इसे बेहतर उसे कमतर न कहो ग़म की जब आँच लगेगी तो पिघल जाएगा दिल तो इक शीशा है इस शीशे को पत्थर न कहो साथ तक़दीर के तदबीर ज़रूरी है 'हबाब' बिगड़े हालात को तुम अपना मुक़द्दर न कहो